रविवार, 15 जनवरी 2012

सूरज !पत्ते चमके रे


रवि किरणों ने
आकाश रंग दिया
पत्ते चमकें रे
देख भोर की
सूर्य लालिमा
धरती गमके रे |

आदित्य ह्वदय जब
मुँह दिखाएँ
नीड़ जागें रे |
खग वृन्द भी
भरें उड़ानें
चिड़िया चहंके रे

कलियाँ चटकें
किसलय विहँसे
भौंरे गुंजन मारें रे
माली की मुस्कान बढे,
ज्यूँ
बगिया महके रे |

सूर्य हुआ उत्तरायण देखो
नयी-नयी ले
किरणें  रे
मौज मनाते खेत
देते
भर-भर फसलें रे |  

सागर तट  पर
बढ़े भीड़
सब मल-मल नहायें रे
सूर्य स्नान का
मजा उठायें
पतंग उडायें  रे|

सर्दी की ठिठुरन
धीमी ,अब
झूमें , नाचें, गाएं रे
तिल गुड के लड्डू
खायें हम
मौज मनायें रे  |

         
 
मोहिनी चोरड़िया        

शुक्रवार, 13 जनवरी 2012

सूरज रे !तुम जलते रहो

हे !शक्ति पुंज
तुम ओज भरो
तुम ज्ञान भरो
अज्ञान हरो
सूरज रे !तुम जलते रहो  |

हे !ऊर्जा पुंज
तुम तेज भरो
 तिमिर हरो
आलोक भरो
सूरज रे !तुम जलते रहो  |

हे ! आदित्य ह्रदय
 तुम बाहों में,
 धरती को लेकर
 धन्य करो
सूरज रे !तुम जलते रहो  |

हे !जगतपिता, तुम परमेश्वर
तुम ही सत्य
तुम ही सुन्दर
इस जगती की पीड हरो |
सूरज रे !तुम जलते रहो  |

मोहिनी चोरड़िया

सूरज रे ! जलते रहना


ओ !हर सुबह जगाने वाले
ओ ! हर सांझ सुलाने वाले
मेरी जीवन नैया को खेने वाले
सूरज रे ! जलते रहना |

सत्य तू है ,शिव भी तू ही
तू ही सुन्दर , भव्य रूप
अंधेरों को उजाले की किरण देने वाले
सूरज रे !जलते रहना |

प्रभात में तू ब्रह्मा रूप
मध्यान में तू शिव स्वरुप
साझ को विष्णु रूप धरने वाले
सूरज रे ! जलते रहना |

ऊर्जा तू ही, शक्ति तू ही
तू ही  मेरी प्रार्थना
ओ ! दुनियाँ के रखवाले
सूरज रे !जलते रहना |

सृष्टि तू ही , दृष्टि तू ही
तू ही मेरी आत्मा
मेरे अंदर के सूरज, ना बुझना
सूरज रे !जलते रहना |


मोहिनी चोरड़िया








मोहिनी चोरड़िया




गुरुवार, 12 जनवरी 2012

सृजनहार! तुम्हारी नगरी कितनी सुन्दर


आज 
मुर्गे की बांग के साथ ही
प्रवेश किया मैंनें तुम्हारी नगरी में . 
रुपहरी भोर ,सुनहरी प्रभात से ,
गले लग रही थी 
लताओं से बने  तोरणद्वार को पारकर आगे बढ़ी, 
कलियाँ चटक रही थीं,
फूलों का लिबास पहने,
रास्ते के दोनों और खड़े पेड़ों ने
अपनी टहनियां झुकाकर  स्वागत किया मेरा
भीनी- भीनी
मनमोहक मादक खुशबू बिखेर,
आमंत्रित किया मुझे,
तुम्हारी नगरी में | 

अदभूत नज़ारा था,
ठंडी-ठंडी पुरवाई,
फूलों पर मंडराते  भ्रमर गुंजन करते,
सुंदर पंखों वाली तितलियाँ और 

उनकी आकर्षक आकृतियाँ
मन को लुभाने लगीं ,
तुम्हारी नगरी में |

पक्षियों का संगान
लगा तुम्हारी सृष्टि का बखान 
प्राची में उगते बाल सूर्य की लालिमा से
खूबसूरत बना क्षितिज,
पानी में  उतरता उसका अक्स,
यौवन की और बढता वह,
तुम्हारी शक्ति,तुम्हारे बल की कहानी कहता लगता,
आत्मबल का पर्याय बना ,
धरती को धन्य करता.

जंगल की डगर ...
फूलों से लदी डालियाँ
अंगड़ाई लेती वादियाँ
 कुलांचें भरते वन्य जीव
 कल -कल बहता पानी
झर-झर झरता झरना
 तुम्हारी अजस्त्र ऊर्जा का बहाव,
तुम्हारा ये चमत्कार,
विश्व को तुम्हारा उपहार
तुम्हारी ही नगरी में |

नदी के किनारे खड़े
आकाश को छूते पेड़ों के झुंडों को देखकर लगा
जेसे दे रहे हों सलामी खड़े होकर
तुम्हारी अद्वितीय कारीगरी को
छू रहे थे आसमान, 
धरती से जुड़े होने पर भी,
ऊँचाइयों को छूकर लग रहे थे खिले-खिले
तुम्हारी नगरी में |

आगे पर्वतों की चोटियाँ दिखीं 
उत्तुंग शिखरों पर कहीं बर्फ की चादर बिछी थी ,
कहीं उतर रहे थे बादल,
अपनी गति .अपने विहार को विश्राम देते 
अपनी शक्तियों को  पुनः जगाने के लिए,
बूँद-बूँद बन सागर की और जाने के लिए,
ताकि कर सकें विलीन अपना अस्तित्व,
वामन से बन जाएँ विराट . 
तुम्हारी ही नगरी में |

खेतों में उगी धान की बालियाँ 
कोमल-कोमल ,कच्ची-कच्ची 
हवा से हिलतीं 
तुम्हारे मृदु स्पर्श को महसूस करतीं ,लजातीं सी 
नव जीवन पातीं लग रही थी 
तुम्हारी ही नगरी में |

शांत-प्रशांत झीलों में खिलते कमल,
उनमें  विहार करते ,चुहुल बाजी करते ,
कभी इतराकर चलते  
नहाकर पंख फडफडाते
थकान मिटाते पक्षी,
करा रहे थे सुखद अनुभूति जीवन की ,
तुम्हारी ही नगरी में  |

कहीं-कहीं पेड़ों  की शाखाओं पर 
रुई के फाहे सी उतरती बर्फ का साम्राज्य था,
ठिठुरती रात, गहराता सन्नाटा 
अलग ही रूप दिखा रहा था,तुम्हारी सृष्टि का,
तुम्हारी ही नगरी में |

सभी रूपों में नगरी लग रही थी भली, 
सहज शांत 
कहीं प्रकाश अंधकार बना
 तो कहीं अंधकार प्रकाश बनता दिखा 
जब अस्त होकर सूरज उदय हुआ.
कहीं जीवन मृत्यु को समर्पित हुआ
 तो कहीं मृत्यु से जीवन का प्रस्फुटन दिखा  
जब धरती में पड़े बीज ने अंकुर को जन्म दिया |

उतार -चढ़ाव की कहानी कहती 
जीवन -मृत्यु की कला सिखाती 
तुम्हारी नगरी कितनी सुंदर| 

नदी-नाव ,झील-प्रपात ,
सागर-लहरें ,पर्वत-पक्षी,
 सूरज-चाँद ,बादल-आवारा 
कलि-फूल ,वन-प्रांतर सारे,
बने खिड़कियाँ तूम्हारे दर्शन के |
में खो गई नगरी की सुन्दरता में,
भूल गई मंजिल ,
खूबसूरत रास्तों में  उलझ गई 
छल लिया इन्होनें मुझे ,
बांध लिया अपने बाहुपाश में ,
अपने प्यार से अपनी कोमलता से |

तुम्हारी पवित्रता 
तुम्हारी उच्चता 
तुम्हारी अतुल्यता की, कहानी कहती, ये नगरी कितनी भव्य है ?
जब तुम स्वयं मिलोगे सृष्टा ,
क्या में आँखें चार कर पाउगी ?
तुम्हारी पवित्रता को छूने की पात्रता अर्जित कर पाऊँगी ?

मोहिनी चोरडिया         



शुक्रवार, 6 जनवरी 2012

सर्जनहार



किसी को फूल किसी को कांटे 
तुमने ही शायद बांटे  
उलझाते हो तो
सुलझाते भी तुम्ही हो 
गिराते हो तो उठाते भी तुम्ही हो 
तुम्हारी ताकत को तोलना 
मेरी सामर्थ्य में नहीं 
हाँ ,मेरी ताकत को तोलने की
तुम पूरी कोशिश करते हो
मेरी हार में तुम हँसते हो
मेरी जीत में तुम हंसते हो
क्योंकि दोनों तुम्हारे हाथ में ही हैं
मैं कमज़ोर इंसान
हार में रोता
जीत में हंसता हूँ
बिना ये समझे कि
मेरी हार होती है तुम्हारे ही आदेश से,
जीत की खुशी क्या होती है
शायद ये समझाने के लिए |

मोहिनी चोरडिया  

परमसत्ता



मौन निःशब्द  रात्रि 
चारों ओर सन्नाटा 
नंगे पेड़ों पर गिरती बर्फ 
रुई के फाहे सी
रात को और भी गंभीर बनाती
शायद तुम्हारे ही आदेश से |

गरजते समुद्र की उफनती लहरें 
प्रलय जैसा दृश्य दिखातीं
खौफनाक मंजर पैदा करतीं 
शायद तुम्हारे ही आदेश से |

गुलाबी भोर, स्याह रात्रि में
विलीन होती 
अपने अस्तित्व का
विसर्जन करती दिखती 
शायद तुम्हारे ही आदेश से |

आज तक समझ नहीं पाया कोई, 
तुम क्या करवाना चाहते हो
किससे ?
दो लोगों के मिलने-बिछुड़ने 
का रहस्य भी 
शायद तुम्हारे ही आदेश से |

अनजान लोगों को
आपस में मिला देना
कब किसकी झोली भर देना, 
कब किसी को खाली कर देना, 
शायद तुम्हारे ही आदेश से |

किसकी मदद से
किसको क्या देना 
गिरने पर
नई दिशा बता देना 
शायद तुम्हारे ही आदेश से |

प्राची में उगता सूर्य और उसकी 
निराली छटा में उड़ते पक्षी 
बिना किसी आवाज़ के, 
ऋतुओं का बदलना 
कली का फूल बनना
शायद तुम्हारे ही आदेश से |

सृजन की सारी प्रक्रियाएँ
तुम्हारे अस्तित्व का प्रमाण देती हैं 
उच्चतम जीवन जीने की कला सिखातीं 
तुम्हारी सारी कृतियाँ 
कितनी पुरातन
फिर भी कितनी नूतन ?
तुमको, तुम्हारे संकेतों को 
हम साधारण मनुष्य 
पढ़ ही नहीं पाते
और कभी पढ़ना नहीं चाहते 
अपने ही अहंकार को साथ लिए 
आगे बढ़ते रहते हैं 
कुछ हाथ न आने पर 
तुम्हारी ही ओर झांकते हैं 
परमसत्ता  को स्वीकारते हैं 
शायद तुम्हारे ही आदेश से |

मोहिनी चोरडिया 



गुरुवार, 5 जनवरी 2012

सर्जनहार


 हवा के पंखो पर चढ़कर
आती है तेरी खुशबू
नदियों के जल के साथ बहकर
कभी प्रपात बनकर, निनाद करती
अमृत सी झरती
आती है तेरी मिठास |
सूरज बनकर आता है कभी
सात घोड़ो के रथ पर सवार तू
अपनी किरणों से देता है जीवन
धरा के सकल चराचर प्राणियों को
ओर देता है ऊष्मा
धान पकने के लिए
अम्बर बनकर देता है जगह/अवकाश
हम सबको
ढक लेता है पिता सा
वरद हस्त बन, और
धरा धारण कर लेती है हमें
माँ बनकर
इससे अधिक प्रमाण और क्या मिलेगा
तेरे होने का ?
प्रकृति का कण- कण कहता
तेरी सुन्दरता की कहानी
तेरी सम्पूर्णता ही
हमारा जीवन है, सुंदरतम जीवन
सत्यम शिवम् सुन्दरम |
तेरी पूर्णता देखनी हो तो
तेरी बनाई प्रकृति के सभी अंशो से
प्यार करना होगा |

मोहिनी चोरडिया